स्कूल के दिनों में
एक कविता पढी़ थी
जिसमें रेलगाडी़ में
सफर करते हुवे
एक व्यक्ती को
सफर के दौरान
रेलगाडी़ के
दोनो ओर के
वृक्ष, घर, लोग
वृक्ष, घर, लोग
सब विपरीत दिशा में
भागते हुवे दिखाई देते हैं
जैसे सब सांथ छोड़ के भाग रहे हों
और केवल दूर
आसमान का चाँद
सांथ सांथ चल रहा
प्रतीत होता है ।
आज एक अरसा हुवा
कितना कुछ पीछे
छूटता गया
नहीं छूटा है जो
वह तो है सांथ सांथ
मैने महसूस किया है जिसे
वही तो है चाँद
वही आस और विश्वास है
वही दोस्त है मेरा
मेरी हर भूल पर
माफ कर देता है जो
मेरे ही भीतर है वह चाँद
वह बचपन
वह स्कूल
वह कविता
और वही
कवि भी।
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