आपने कहा
आइयेगा
एक कप काफी
या
एक कप
चाय
फर्माइयेगा,
कुछ लम्हे
हमारे साथ
बिताइयेगा
मगर बात
इतनी
सी ना रही ।
आपने
खामोशी तोडी़
चाय की
चुस्कियों के
सांथ हमने
कुछ नाश्ता
भी लिया
हल्के हल्के
मुस्कुराते हुवे
आपने मेरे
भीतर के
भारीपन को
हलका किया
चाय तो एक
बहाना थी
कुछ क्षण
साथ बिताने
के लिये
कुछ आपस की
कुछ जमाने की
बातों को
दोहराने के लिये
कोरे कागज पर
लिखी इबारत
की तरह
थी चाय
ईश्वर य़ा अल्लाह की
इबादत की तरह
थी चाय
चाय एक
धर्म की
तरह थी
हम सभी
के बीच की
एक जमीन
एक पुल थी
दो किनारों
को मिलाने
के लिये ।
आपकी और
हमारी
बात छोडि़ये
कई जगह
इसकी जरुरत
होती है केवल
डायलाग भर
बनाने के लिये
चाय
मिलने के लिये
मुद्दा थी
कुछ कहने
और सुनने
के लिये
बहाना थी
चाय
चाय
खिली होगी
कभी
बागानो में
हमारे चेहरों पर
खिल उठी
थी चाय
चाय के लिये
मैने आपको
धन्यवाद दिया
ये दिन
दोहराइयेगा
इन चुस्कियों का
संगीत हमेशा
याद आयेगा
एक दिन
रंग लायेगी
जरूर
ये एक कप चाय
की सभ्यता
आप भूलियेगा नहीं
आप भी
जरूर आइयेगा
पहले आपने
कहा
अब कहा मैंने
एक कप काफी
या
एक कप चाय
फर्माइयेगा ।
Friday, July 2, 2010
Thursday, January 21, 2010
"दर्द"
बस आँखों
से बताऊंगी
होठों पर
मौन
तुम्हारी तरह
रहेंगे द्वार
बंद
नहीं भटकाऊंगी
अब और
दहन की
आग
भस्म भभूती
मस्तक पर
तेरे नहीं
लगाऊंगी
हर बार
बोल डूबे
नहीं
अतल में
तल मिला
नहीं
तू हिला
नहीं
हवाओं से
कोई
तुझे गिला
नहीं
मगर मुझे
है
तुझसे
तेरी
बेदर्दी से
हरे भरे
डालों से
झरे आँचल
में
गूंथे फूल
भरे गहरे
गजरे
किसे
पहनाऊंगी
बोल --
बोझिल दर्द
अब और
कहाँ
भटकाऊंगी ।
से बताऊंगी
होठों पर
मौन
तुम्हारी तरह
रहेंगे द्वार
बंद
नहीं भटकाऊंगी
अब और
दहन की
आग
भस्म भभूती
मस्तक पर
तेरे नहीं
लगाऊंगी
हर बार
बोल डूबे
नहीं
अतल में
तल मिला
नहीं
तू हिला
नहीं
हवाओं से
कोई
तुझे गिला
नहीं
मगर मुझे
है
तुझसे
तेरी
बेदर्दी से
हरे भरे
डालों से
झरे आँचल
में
गूंथे फूल
भरे गहरे
गजरे
किसे
पहनाऊंगी
बोल --
बोझिल दर्द
अब और
कहाँ
भटकाऊंगी ।
Wednesday, January 20, 2010
"क्षणभंगुर"
कोरे पृ्ष्ट का
तारतम्य
कलम से
शब्दांकन तक
सुदृढ़ विस्तरित
भावांकन तक
तदुपरांत---
पृ्ष्ट का
विदीर्ण
क्रन्दन............
तारतम्य
कलम से
शब्दांकन तक
सुदृढ़ विस्तरित
भावांकन तक
तदुपरांत---
पृ्ष्ट का
विदीर्ण
क्रन्दन............
Tuesday, January 19, 2010
"मरीचिका"
शिकंजे नहीं
खुद बिन डाले
जाले
हर तरफ
हर ओर
बस
मरुस्थली शोर
समझौता
हवाओं से
न हो
सका
बालू का
मन ढह
गया
दूर दूर
तक तोड़
सीमा
सीमाहीन
भटक गया
सीमा ही
के लिये ।
खुद बिन डाले
जाले
हर तरफ
हर ओर
बस
मरुस्थली शोर
समझौता
हवाओं से
न हो
सका
बालू का
मन ढह
गया
दूर दूर
तक तोड़
सीमा
सीमाहीन
भटक गया
सीमा ही
के लिये ।
Monday, January 18, 2010
"संशय"
मैं
अभिव्यक्ति
चिर संघर्ष
की
सीमाओं की
ओर
भटकते स्पर्श
की
जिंदगी के
लक्ष्यों के
बीच
ढूंढते हुवे
एक लक्ष्य
एक राह
हो गयी
ना जाने
कब और
कैसे
गुमराह ।
अभिव्यक्ति
चिर संघर्ष
की
सीमाओं की
ओर
भटकते स्पर्श
की
जिंदगी के
लक्ष्यों के
बीच
ढूंढते हुवे
एक लक्ष्य
एक राह
हो गयी
ना जाने
कब और
कैसे
गुमराह ।
Sunday, January 17, 2010
"यादों के प्रहार"
कुचले फूल
उभर आते
फिर से
मुस्कुराने
के लिये
मगर गंध
गुब्बारों
की तरह
आती नहीं
जा के
एक बार
अनन्त पथ
पर मोड़ों
से गुजरती
बुझती लौ
की लाली
सी तीव्र
हरबार
एक कठोर
प्रहार
समय की
लाठी से
यादों की
गठरी पर
कितना कुछ
बिखर जाता
पंखुडी़ का
गुलाल
जब जब
बिलख पड़ती
अतीत की
डाल ।
उभर आते
फिर से
मुस्कुराने
के लिये
मगर गंध
गुब्बारों
की तरह
आती नहीं
जा के
एक बार
अनन्त पथ
पर मोड़ों
से गुजरती
बुझती लौ
की लाली
सी तीव्र
हरबार
एक कठोर
प्रहार
समय की
लाठी से
यादों की
गठरी पर
कितना कुछ
बिखर जाता
पंखुडी़ का
गुलाल
जब जब
बिलख पड़ती
अतीत की
डाल ।
Saturday, January 16, 2010
मैं हूं
संसार
युद्ध स्थल
मन मेरा
योद्धा हैं
विचार
अधर्म का
जब जब
धरा पर
हुवा संहार
युद्धपति बन
कर प्राणधार
किया तुमने
ही उद्धार
शुभ घडी़
कौन
होगी वह
मन महि
पर आकर
अक्षय व्यभिचार
का करोगे
परिष्कार
लोहित लोहित
भीग
चुकी हूं
बहुत हो
चुका संहार
हे माधव !
यह तटस्थता
किसलिये
किसलिये
निर्विकार
वेदना करुणा
के आधार
क्या भूल
गये तुम
मैं हूं
संसार ।
संसार
युद्ध स्थल
मन मेरा
योद्धा हैं
विचार
अधर्म का
जब जब
धरा पर
हुवा संहार
युद्धपति बन
कर प्राणधार
किया तुमने
ही उद्धार
शुभ घडी़
कौन
होगी वह
मन महि
पर आकर
अक्षय व्यभिचार
का करोगे
परिष्कार
लोहित लोहित
भीग
चुकी हूं
बहुत हो
चुका संहार
हे माधव !
यह तटस्थता
किसलिये
किसलिये
निर्विकार
वेदना करुणा
के आधार
क्या भूल
गये तुम
मैं हूं
संसार ।
Thursday, January 14, 2010
Wednesday, January 13, 2010
माँ के देहावसान पर (सन दो हज़ार)
कहाँ से शुरू करूं
माँ
आज जब तुम
सुन नहीं सकती
मैं तुम्हें
सुनाना चाहती हूं
अपनी हर बात
जो मुझे
आती है याद
वो मेरा रोकर
छुप जाना
तुम्हारे आँचल में
रो रो के तुमसे
हर जिद मनवाना
दिन भर की
थकान के बाद
रात मे भोजन
परोसते परोसते
वो तुम्हारा बीच
में ही सो जाना
और हम बच्चों
का शोर करके
तुम्हें जगाना
फिर तुम्हारा
हँसना
याद आता है
माँ
अँगोछा होने
पर भी
प्यार से
बच्चों की तरफ
अपना
पल्लू बढा़ना
पूरी जिंदगी
न्यौछावर कर दी
तुमने
अपने लगाये
बगीचे पर
जिंदगी की डोली
से मौत की डोली तक
बस दिया ही दिया तुमने
कभी बूंद बूंद
जिंदगी
तो कभी
ईश्वर लाज रखना
की सीख
अब
इस सीख को
ईश्वर
तुम ही निभाना
क्योंकी कुछ
दिखायी नहीं
देता अब
दर्पण तो
माँ की आँखो
के साँथ गया
कहाँ से शुरु करूं
माँ
माँ
आज जब तुम
सुन नहीं सकती
मैं तुम्हें
सुनाना चाहती हूं
अपनी हर बात
जो मुझे
आती है याद
वो मेरा रोकर
छुप जाना
तुम्हारे आँचल में
रो रो के तुमसे
हर जिद मनवाना
दिन भर की
थकान के बाद
रात मे भोजन
परोसते परोसते
वो तुम्हारा बीच
में ही सो जाना
और हम बच्चों
का शोर करके
तुम्हें जगाना
फिर तुम्हारा
हँसना
याद आता है
माँ
अँगोछा होने
पर भी
प्यार से
बच्चों की तरफ
अपना
पल्लू बढा़ना
पूरी जिंदगी
न्यौछावर कर दी
तुमने
अपने लगाये
बगीचे पर
जिंदगी की डोली
से मौत की डोली तक
बस दिया ही दिया तुमने
कभी बूंद बूंद
जिंदगी
तो कभी
ईश्वर लाज रखना
की सीख
अब
इस सीख को
ईश्वर
तुम ही निभाना
क्योंकी कुछ
दिखायी नहीं
देता अब
दर्पण तो
माँ की आँखो
के साँथ गया
कहाँ से शुरु करूं
माँ
Monday, January 11, 2010
1.
जब न
सोया हूँ
और
न जागा
वर्तमान
उबासी
का वही
उबा
देने वाला
लम्बा
अंतराल है ।
2.
वस्तुत:
देह
आत्म
वाहन है
उनके
लिये
जो
जीते हैं
न जी
पाने वाले
ढोते हैं
देह को
देह
आत्म वाहन
नहीं
आत्म ही
वाहन
बन
जाता है
उनका
देह
के लिये ।
3.
आडी़
तिरछी
रेखायें
खींच कर
जिंदगी पर
छायी
मौत
का
चित्रांकन
करते हुए
रुक गया
कृ्तिकार
विकृ्ति का
हर अंश
अपने से ही
उतरता
देख कर |
जब न
सोया हूँ
और
न जागा
वर्तमान
उबासी
का वही
उबा
देने वाला
लम्बा
अंतराल है ।
2.
वस्तुत:
देह
आत्म
वाहन है
उनके
लिये
जो
जीते हैं
न जी
पाने वाले
ढोते हैं
देह को
देह
आत्म वाहन
नहीं
आत्म ही
वाहन
बन
जाता है
उनका
देह
के लिये ।
3.
आडी़
तिरछी
रेखायें
खींच कर
जिंदगी पर
छायी
मौत
का
चित्रांकन
करते हुए
रुक गया
कृ्तिकार
विकृ्ति का
हर अंश
अपने से ही
उतरता
देख कर |
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