Sunday, December 13, 2009

बाल्यावस्था से
मैंने दौड़ने की
कई प्रतियोगिताओं
में भाग लिया
और
कई प्रतियोगिताओं
में स्थान
भी प्राप्त किया
मुझे जानने वाले
कई लोग
इस बात पर
कौतूहल
रखते हैं
कि
जीवन में
जो व्यक्ति
गतिमान नहीं
दिखायी देता
वह किस तरह
प्रतियोगिताओं में
भाग लेता
इस प्रश्न का
जवाब
मेरे पास
भी नहीं होता
मैंने तो
इस पूरे प्रक्रम में
बस एक ही
सत्य को
पहचाना
दौड़ने से
पूर्व की एक
प्रथम मुद्रा को
जैसे
कुछ कहते हुए जाना
जब एक पैर
उठा हुवा हो
धरती से
और एक लगा
हो धरती पर
एक
इस पार हो
और
दूजा
जाने को
तैयार हो
दृष्टि
सधी हुवी हो
और
कान
हों किसी
आदेश पर
गीता कृष्ण अर्जुन
सब एक ही
जगह पर
मेरी जड़ता
और
मेरा गतिमान होना
तुम्हारा
मुझ पर सन्देह
तो कभी मुझे
सन्देह से पार
कर देना
मेरी तुमसे
शिकायत
तो कभी
हँस कर
आभार देना
बीते हुवे दिन
और
बहुत कुछ
बिखर गया
याद रह गयी बस
एक मुद्रा
दौड़ने से पूर्व
की तैयारी
तैयारी बस तैयारी
मेरा जीवन
एक पैर
उठा हुवा
धरती से
और
एक धरती से
लगा हुवा

12 comments:

  1. सुन्दर, सतत विकास की प्रक्रिया का वर्णन

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  2. Waah! Yahee jeevan sahee daud hai!

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  3. अच्छी रचना। बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।

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  4. रेडी स्टेडी गो !
    दोनो पांव हवा में उठा के चलने वालों का क्या करें?
    बधाई ! स्वागत !

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  5. Zindagee ke prati dekhneka behad achha nazariya!

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  6. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है अपने विचारों की अभिव्यक्ति के साथ साथ अन्य सभी के भी विचार जाने..!!!लिखते रहिये और पढ़ते रहिये....

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  7. This comment has been removed by the author.

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  8. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें

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  9. acha likha hai apne jeevan ke satat pryas ke bare mein magar kahi kuch hai jo kuch apne bare me khana chah rah hai shayad meine sahi samjha hai wo hawa me utha hua pair...kuch kah gya

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  10. ब्लाग जगत में द्वीपांतर परिवार आपका स्वागत करता है।

    pls visit...
    http://dweepanter.blogspot.com

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